पुराणों में गुरु (बृहस्पति) को अंगिरा ऋषि का पुत्र बताया है। गुरु को देवताओ के गुरु की पदवी मिली है। इस कारण ये (बृहस्पति) सभी के गुरु है। संसार में सभी इनका मान-सम्मान करते है। इनकी प्रसन्नता से सुख समृद्वि, सम्पदा, प्रतिभा, यश, तेज, धन-धान्य सभी कुछ इनकी कृपा से मिलता है। ये सुख सौभाग्य भी देते है। इसी कारण स्त्रियाँ गुरु का व्रत अपने सुख सौभाग्य के लिए करती है। जन्म पत्री में लग्न में गुरु होने पर इसे अधिक बलवान माना जाता है। स्त्री जातक की कुंडली में गुरु का बलवान होना सौभाग्य का प्रतिक होता है। .
जन्म पत्री के दूसरे भाव (धन भाव) का कारक गुरु होता है। गुरु के बलवान होने पर परिवार में सुख शांति होती है। इसी कारण दूसरे भाव से धन-धान्य, कुटुम्व, सम्पति, रत्न आदि का विचार किया जाता है।
गुरु धनु और मीन राशि का स्वामी होता है तथा मूल त्रिकोण राशि धनु होती है।
गुरु की उच्च राशि कर्क व नीच राशि मकर होती है।
गुरु एक राशि पर तेरह महीना भ्रमण करता है।
गुरु का देवता : गुरु, श्री विष्णु भगवान की पूजा करने से सभी कुछ मिलता है।
गुरु का मंत्र : ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौं स: गुरुवे नम: ।
जाप संख्या : 19,000 मंत्र, जाप का समय : संध्या काल।
गुरु का दान : पीला धान्य, पुखराज, कांसे का बर्तन, सोना, नमक, घी, पीले पुष्प, पीला कपड़ा, पीला फल आदि।
गुरु का नग : पुखराज (पीला और सफ़ेद) तर्जनी रिंग में गुरुवार को धारण करे।
गुरु सतगुणी होता है वह जाति ब्राह्मण की होती है।
गुरु पुरुष लिंग होता है तथा इसका तत्व आकाश होता है।
गुरु विद्या का कारक होता है तथा परिवार में सम्बन्ध संतान से होता है।
गुरु का स्वभाव शुभ होता है वक्री होने पर भी शुभ फल देते है।
गुरु की प्रकृति कफ होती है व धातु सोना मणि गई है।
गुरु से शरीर में चर्बी का विचार किया जाता है। इनकी दिशा ईशान कोण है तथा दृष्टि 5, 7, 9 वी होती है।
शुक्र ग्रह को पुराणों में भृगु ऋषि के पुत्र माने जाते है। इनको दैत्यों के गुरु की पदवी मिली है। वैसे तो ये (शुक्र) ब्राह्मण जाति से है। लेकिन हठ के कारण ये दैत्यों के गुरु बन गए। शुक्र ग्रह प्रेम व सौंदर्य का प्रतिक है। जिनकी जन्म पत्री में शुक्र ग्रह बलवान होता है उनके अंदर विलक्षण कला होती है जिससे सभी का आकषण होता है। शुक्र ग्रह आकाश में चमकता हुआ ग्रह है तथा सभी ग्रहो में इनका अपना महत्व व स्थान है। इसी कारण इनके अस्त(शुक्र डूबने) होने पर सभी विआह आदि शुभ कार्य बंद हो जाते है। इतना इनका (शुक्र ग्रह) सम्मान व प्रभाव है।
इनका प्रभाव सभी जातको पर पड़ता है। ये सौंदर्य के विधाता व स्वामी माने गए है तथा वीर्य रस के देने वाले है। जो वीर्य की रक्षा करता है वही बली होता है। इसी कारण ये बली राजा के गुरु थे। इन्ही के बल पर स्वर्ग के राजा बने। शुक्र ग्रह से रूप, रस, शक्ति मिलती है। इनके कमजोर होने पर जातको को तेजहीन व शक्तिहीन माना जाता है।
पुरुष जातक की जन्म पत्री में मिलान करते समय(विवाह समय) शुक्र ग्रह का ज्यादा विचार किया जाता है। शुक्र ग्रह के कारण ख़ुशी, साजो-सामान, भोग की वस्तुए मिलती है। ये जन्म पत्री में सप्तम भाव का कारक होता है। सप्तम भाव के स्वामी के साथ-साथ शुक्र ग्रह का भी विचार करना चाहिए। सप्तम भाव जन्म पत्री में केंद्र में मुख्य भाव होता है। इससे भोग विलास, पति-पत्नी, व्यापार, खोई वस्तु व मारक स्थान का विचार किया जाता है। पति कैसा होगा या पत्नी कैसी होगी तथा व्यापार में साझेदारी का विचार भी इसी से किया जाता है। शुक्र ग्रह पुरुष जातक की कुंडली में स्त्री का कारक होता है। इसको बलवान करना जरुरी है।
शुक्र ग्रह वृष व तुला राशि का स्वामी होता है तथा इसकी मूल त्रिकोण राशि तुला होती है।
शुक्र ग्रह की उच्च राशि मीन व नीच राशि कन्या होती है। यह ग्रह एक राशि पर एक महीना रहता है।
शुक्र का देवता : शुक्र ग्रह को प्रसन्न करने के लिए लक्ष्मी देवी की उपासना करनी चाहिए। उनकी कथा भी सुने।
शुक्र ग्रह का मंत्र : ॐ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राये नम:, जाप संख्या : 16,000 मंत्र, समय : सूर्योदय।
शुक्र का दान : चावल, दूध, घी, हीरा, सफेद कपडा, सफ़ेद चन्दन, चांदी, चीनी आदि।
शुक्र ग्रह की संज्ञा स्त्रीलिंग होती है तथा तत्व जल होता है। शुक्र ग्रह का स्वभाव शुभ होता है तथा दक्षिण-पूर्व का स्वामी होता है। शुक्र का सम्बन्ध स्त्री से होता है।
शनि देव सूर्यनारायण भगवान के पुत्र है इनकी माता का नाम छाया देवी है ये शनि देव मायावाद के देवता है यदि शनि देव ना हो तो पृथ्वी की भौतिकता ही नष्ट हो जाये। ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि में शनि देव क्रांतिकारी, बलशाली व अनेक शक्तियों के भयानक देवता माने जाते है। इनका नाम मात्र लेने से लोगो को भय लगा रहता है। वैसे शनि देव न्यायप्रिय देवता है। इनको सभी ग्रहो में न्यायाधीश की पदवी मिली हुई है। ये जातक के कर्मो का न्याय करके सही फल देते है।
ये शनि देव ऐश्वर्य के देने वाले, दीन दुखी पर कृपा बरसाने वाले, शत्रुओ का विघटन करने वाले देवता है। ये कर्म या व्यवसाय के देवता है और जीवन का स्रोत्र है कठिन आपत्तियो व विपत्तियों में दुख का हरण करते है। इसी कारण शनि देव को दुख दूर करने के लिए तथा धन पाने के लिए याद किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र में पंडित लोग शरीर में नसों, जोड़ो का विचार शनि देव से करते है। ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ पर शनि देव का प्रभाव व अस्थित्व ना हो इनको(शनि देव) को तो मानना ही पड़ेगा तभी सुख शांति व धन मिलेगा।
शनि देव वैसे तो क्रूर व पाप ग्रह की श्रेणी में आते है किन्तु इनका परिणाम अच्छा होता है ये सभी के साथ न्याय करते है। इस कारण शनि को प्रसन्न करना चाहिए।
शनि की दृष्टि जहाँ पर बैठता है वहाँ से तीसरे, सातवे और दशमे भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है और अपना अच्छा और बुरा फल प्रदान करता है।
शनि ग्रह एक राशि पर ढ़ाई साल रहता है तथा इसका प्रभाव आगे वाली राशि व पीछे वाली राशि पर होने पर साढ़ेसात साल प्रभावित करता है इसे साढ़ेसाती कहते है।
शनि मकर और कुम्भ राशि का स्वामी होता है और मूल त्रिकोण राशि कुम्भ होती है।
शनि की उच्च राशि तुला और नीच राशि मेष होती है। शनि सप्तम भाव में बली होता है।
शनि का देवता : भैरो जी की उपासना व हनुमान जी की उपासना करनी चाहिए।
शनि का मंत्र : ॐ प्रां प्रीं प्रौं स: शनये नम: ।
जाप संख्या : 23,000 मंत्र, जाप का समय : संध्या।
शनि का दान : नीलम, लोहा, काला कपडा, तवा, सरसो का तेल, तिल, उरद, जूते आदि। ये सभी वस्तुए दोहपर के समय दान करे।
शनि का कारक : संघर्ष व स्वभाव क्रूर होता है।
शनि की दिशा पश्चिम व जाति शूद्र की होती है।
शनि का रंग नीला काला होता है और तत्व वायु का होता है। तथा शनि को स्त्री नपुंसक माना जा है।
राहु की माता दानवराज हिरण्यकशिपु की पुत्री सिंहिका थी इनके पिता का नाम विपु चित्ति है ये दानवो के राजा थे। श्रीमद भागवत में कथा आती है कि समुन्द्र मंथन के समय जो अमृत निकला वह भगवान जी ने विश्व मोहिनी रूप धारण कर देवताओ को पिलाया लेकिन राहु जान गया कि अमृत दैत्यों को नहीं मिलेगा इस कारण चुप चाप देवताओ की लाइन में सूर्य और चन्द्रमा के बीच में बैठ गया। चन्द्रमा पीछे थे इस कारण आगे बैठे हुए राहु को भी अमृत पिलाना पड़ा। बाद में श्री भगवान जी ने अपने सुदर्शन चक्र से उसका सर काट दिया तब से इस ग्रह के दो रूप हो गए अर्थात धड़ के ऊपर का भाग राहु बना और गर्दन के नीचे का भाग केतु लोक में प्रसिद्ध हो गया। अमृत पीने के कारण राहु और केतु अमर हो गए इसी कारण नव ग्रह में देवताओ के साथ इनकी भी पूजा होता है। राहु और केतु स्वतंत्र ग्रह नहीं बल्कि छाया ग्रह है।
राहु की मिथुन राशि उच्च और धनु राशि नीच होती है इसी तरह केतु की धनि राशि उच्च व मिथुन राशि नीच होती है।
राहु का कारक : छत्र, चामर, प्रेत बाधा, कोढ़, नीच जाति, सपेरे, झूठ बोलना, अयोग्य स्त्री से सम्बन्ध, पशु , वाक् युद्ध, धर्म भ्रष्ट, जुआ, चोर बाजारी आदि का कारक राहु होता है। राहु ग्रह से प्रभावित होने पर ये दोष आते है।
केतु का कारक : छिद्र युक्त वस्त्र, लहसुनिया, ज्ञान, मातामह, स्नायु सम्बन्धी, चर्म रोग, गुप्त षडयंत्र आदि का कारक होता है।
राहु के बुध, शुक्र, शनि मित्र ग्रह होते है व सूर्य, चन्द्रमा व मंगल शत्रु ग्रह व बृहस्पति सम ग्रह माने गए है। इसी तरह केतु के सूर्य, मंगल, बृहस्पति मित्र ग्रह व बुध, शुक्र, शनि सम ग्रह होते है और चन्द्रमा शत्रु ग्रह होता है।
राहु-केतु ग्रह एक राशि पर 18 महीने भ्रमण करता है।
राहु-केतु अपने से पांचवे, सातवे तथा नौवे भाव को देखते है।
राहु की महादशा 18 वर्ष तथा केतु की महादशा 7 वर्ष की होती है।
राहु को प्रसन्न करने के लिए भैरो जी की उपासना व दुर्गा जी की उपासना शुभ फल प्रदान करती है केतु को प्रसन्न करने के लिए गणेश जी की उपासना करनी चाहिए।
राहु का मंत्र : ॐ भ्रां भ्रीं भ्रौं स: राहवे नम: तथा केतु का मंत्र : ॐ स्त्रां स्त्रीं स्त्रौं स: केतवे नम: ।
राहु की जाप संख्या : 18,000 मंत्र व केतु की जाप संख्या : 7000 मंत्र, समय : रात्रि।
राहु का दान : सप्त धान्य, गोमेद, शीशा, सोना, काला घोडा, ताम्र पात्र, तेल, नारियल, कम्बल, नीले वस्त्र आदि तथा केतु का सप्त धान्य, लोहा, बकरा, नारियल, तेल, काला वस्त्र, कम्बल, कस्तूरी आदि।
राहु और केतु तमोगुणी होते है व दोनों का रंग ध्रुम्र होता है।
राहु और केतु दुःख और कष्ट के कारक होते है तथा दोनों की संज्ञा पुरुष की होती है।
राहु का सम्बन्ध शत्रु से व केतु का बाधा से होता है तथा इन दोनों का स्वभाव क्रूर होता है।
राहु से शरीर में हड्डी का विचार किया जाता है व केतु से चर्म का।