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श्रीजीज्योतिष

श्रीजी "राधारानी" मंदिर बरसाना धाम


भगवान जी ने कहा, मेरा यह स्वरुप लाडिलेय हैं इस मूर्ति को मैं तुम्हें देता हुँ। सर्वदा साथ रखना, सेवा करना ऐसा कह कर अन्तर्धान हो गयें। श्री नारयणभट्ट जी श्री लाडिलेय मूर्ति को लेकर ब्रज को चल पङे। अढ़ाई वत्सर में राधा कुण्ड पहुँचे, मार्ग में लाडिलेय बालक बनकर बातचीत करते, हास्य परिहास करते, कोई मनुष्य आता तो मूर्ति बन जाते। राधा कुण्ड में ब्रह्मचारी जी को श्री मदन मोहन जी ने दर्शन दिये।इस तरह श्री नारायणभट्ट जी ब्रह्मचारी जी से सम्प्रदाय रहस्य सीखने लगें।



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बाएं ओर राधा कुण्ड और दाहिने ओर कृष्ण कुण्ड। (चित्र में)

श्री ब्रह्मचारी जी ने श्री नारायणभट्ट जी को गोपल मंञ भी दिया। भक्ति शास्ञ का अध्ययन करके ब्रज के तीर्थ समूह का उद्धार किया।

"भट्टनारायण अति सरस ब्रजमण्डल सों हेत। ठौर ठौर रचना कियो निकट जानि संकेत॥"

फिर राधा कुण्ड में अपने गुरु के पास वास किया तथा अनेक ग्रंथो का निर्माण किया। फिर कुछ दिन बाद बरसाने के पास ऊँचे गाँव में रहने लगे। वहाँ श्री बलदेव जी का प्राकट्य किया। "आज भी वही श्री बलदेव जी की मूर्ति ऊँचे गाँव मंदिर में विराजित हैं"।



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रेवती रमणं मां त्वं प्रकटी कर्त्तु मर्हसि। शिलापृष्ठ स्वरुपोSयं भाराक्रान्तोSस्मि दीक्षित॥13॥ प्रातः काले ततो भट्टो जनानाहूय सर्वञ। खननं कारयामास भूमेस्तैर्ब्रजवासिभि॥14॥ शिलापृष्ठ स्वरुपं तत् रेवतीरमणस्य सः। गृहित्वा स्थापयामास मन्दिरे तृणनर्म्मिते॥15॥

कुछ रोज ऊँचे गाँव में श्री बलदेव जी की पूजा करते रहें।उसी समय श्री राधिका जी(श्री जी) ने प्रेरणा करी कि गहवर वन में आओ सों श्री नारायणभट्ट जी गहवर वन को चल दिये वहाँ पहुँच श्री जी(राधारानी) का ध्यान करने लगें।


गहवर वन में श्री नारायणभट्ट जी, श्री जी(राधारानी) का ध्यान करने लगे। श्री जी (राधारानी) ने कृपा करी।श्री नारायणभट्ट जी के सामने श्री जी (राधारानी) प्रकट हुई और अपने रुप को मूर्ति में स्थापित किया।


"अथ नारायणे भट्ट आययौ ब्रह्मपर्वते। प्रदक्षिणां पकुर्व्वाणः पश्य पादपगह्वरं॥34॥ गोपीभावं समास्थाय विचचार महामुनिः। अकस्मात दद्दशे तञ राधिकां बालरुपिणीम॥35॥ अतिकोमलपदाभ्यां लालेन सह गामिनीम। द्दष्टवा नारायणे भट्टः कृताञ्जलि पुटो भवत् ॥36॥ तमुवाच तदा राधा कृतार्थस्त्वं द्विजोत्तम! । मम दर्शन माञेण तथा प्याग्यां करोमि ते॥37॥ आगन्तव्यं त्वया ब्रह्मन्नर्द्धराञादनन्तरम। अञैव मम मूर्तिस्तु वर्त्तते ब्रह्मपर्वते॥38॥ लप्स्यासि त्वं न भन्देहो मूर्ति मे मानुषा कृतिम् । इत्युक्त्वा लाडिलीलालौ तञैवान्तरधीयतां॥39॥ नारायणोSपि तञैव समये प्राप्तवान्मुनिः। ददर्श युगलं तञ मूर्तिरुपधरं परम॥40॥ अभिषेकं च कृतवान भद्दो भा करसंभवः ।इत्याधिकं॥

जब श्री नारायणभट्ट जी का गोपी भाव देखा तो उनके सामने राधिका (श्री जी) जी बाल रुप में प्रकट हुई। उनके चरण अति कोमल थे। तब श्री नारायणभट्ट जी ने दोनों हाथ जोङ लिये और वो राधा कृपा से कृतार्थ हुए। तब उन्होंने कहा कि मेरी मूर्ति ब्रह्माचल पर्वत पर हैं, जिनका नाम् लाडिलीलाल हैं तब श्री नारायणभट्ट जी ने श्री जी(राधारानी) को प्रकट किया और उनकी सेवा करने लगें।

सखी री जन्मी हैं श्री राधा । गौरांगी गुण निधि नव नागरि , रुप अनुप अगाधा ॥ जाको नाम जपत ही जन की , दूर होत दुःख बाधा । मंगल करनी बेदन बरनी , हरनी जगत उपाधा ॥ दया निधान खान करुणा की , सब बिधि सब की साधा ॥ सरस माधुरी श्याम सलोनी , तजे न पल छिन आधा ॥

श्री नारायणभट्ट जी ने बरसाने में ब्रह्माचल पर्वत के ऊपर दो झोपङी बनायी, एक झोपङी में श्री लाडली जी (श्री जी) को पधराया, दूसरी झोपङी में स्वंय रहकर सेवा करने लगें। गाँव-गाँव से भक्तजन आने लगें। धीरे-धीरे दूर दूर तक श्री राधारानी का प्रचार प्रसार हुआ। भक्तजन राधे-राधे करके अपने जीवन को धन्य बना रहे थे। श्री नारायणभट्ट जी ने बाद में अपने प्रिय शिष्य "भक्त श्री नारायण दास जी श्रोती" को श्री लाडली जी की सेवा का भार सौंप कर स्वंय ऊँचे गाँव में श्री बलदेव जी की सेवा करने लगें।







श्री लाडली जी(श्री जी) का प्राकट्य काल सम्वत् 1626 (वर्ष 1569) आषाढ़ शुदी दौज का हैं। उस दिन से आज तक श्री नारायणदास जी श्रोती के वंशज "गोस्वामी परिवार" श्री लाडली जी का व श्री स्वामी जी का पाट उत्सव मनाते हैं।


इधर में श्री नारायणभट्ट जी ने श्री जी (राधारानी) के प्राकट्य से पहले राजा अकबर बादशाह के कोषाध्यक्ष टोडरमल को ब्रज में लाकर श्री बलदेव जी का निर्माण, कुण्ड समूह का निर्माण तथा प्राचीन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। ऊँचे गाँव में श्री भट्ट जी ने 52 ग्रंथ का निर्माण किया फिर बालको को राधा-कृष्ण बनाकर रासलीला करते थे (रासलीला श्री नारायणभट्ट जी ने ही चलायी थी) ।

एक दिन सांकेत गाँव में श्री राधारमण मूर्ति का दर्शन हुआ। उनके आदेशानुसार समस्त भागवत की रसिकाल्हादिनी नाम टीका बनायी। तब बूढ़ी लीला भी होने लगी जो अब तक भाद्रपद मास में सप्तमी से तेरस तक होती आ रही हैं। फिर वैष्णव मंडली भक्तजन संग ब्रजयाञा, वनयाञा करने लगें। ब्रजयाञा भी उनसे चली, ब्रजयाञा व वनयाञा के लिये दो ग्रंथ बनवाये। 1.ब्रजभक्ति विलास 2. वृह्त्ब्रजगुणोंत्सव । जब समस्त कार्यों का समाधान हो गया तब लाडिलेय स्वरुप से अन्तर्ध्यान होने की प्रार्थना कीये। तब श्री लाडिलेय ने प्रकट होकर प्रार्थना मान ली। तब आप जन्माष्टमी के दिवस पुञ श्री दामोदरभट्ट गोस्वामी जी को गद्दी का समस्त भार देकर हजारों शिष्य मण्डली व वैष्णव मण्डलियों की उपस्थिति में नारद जी का प्रदुर्भाव हुआ। यह समय सम्वत 1700 से पहले का अनुमान किया जाता हैं।





आज का पंचांग